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जीव संरक्षण पर घड़ियाली आंसुओं के बीच खुद घड़ियालों के बारे में बिहार से एक अच्छी खबर है

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बिहार में गंडक किनारे का एक इलाका देश में जंगली घड़ियालों का तीसरा प्राकृतिक प्रजनन स्थल बन गया है



घड़ियाल वास्तव में मगरमच्छ की प्रजाति का होते हुए भी मगरमच्छ से भिन्न एक जानवर है, जो पूरी तरह से दक्षिण एशियाई और खासकर भारतीय मूल का ही है. घड़ियाल का नाम घड़ियाल इसके रूप की वजह से ही पड़ा है. दरअसल, इसकी थूथन बहुत लंबी होती है जो अंत में फूलकर घड़े की आकार की दिखाई देने लगती है. इसी वजह से लोगों ने इसे घड़ियाल कहना शुरू कर दिया होगा. यह एक बेहद खूबसूरत और अद्भुत जानवर है, जिसकी लंबाई 7 मीटर (22 फीट) तक हो सकती है. घड़ियाल का जीव-वैज्ञानिक नाम गैवियालिस गैंजेटिकस है. यह एक अत्यंत संकटग्रस्त और लुप्तप्राय प्रजाति है. अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) के मुताबिक 2006 में इनकी संख्या 200 से भी कम थी. हालांकि हाल के आकलनों में इनकी संख्या 550 के करीब बताई जाती है, और यदि इनमें शिशु और किशोर घड़ियालों की संख्या भी जोड़ दें, तो इनकी संख्या दोगुनी तक हो सकती है.


घड़ियाल मीठे पानी में रहने वाला मत्स्याहारी (मछली खाने वाला) प्राणी है, जो सरीसृप या रेप्टाइल्स वर्ग का जीव है. भारत में घड़ियाल चंबल, गिरवा, घाघरा, गंडक, गंगा, सोन और केन नदियों में देखा गया है. हालांकि इन नदियों में या तो इनकी आबादी बहुत थोड़ी रह गई है, या कुछेक नदियों से यह पूरी तरह लुप्त हो गए हैं. मानवीय आबादी से दूर इन नदियों के तटों पर मछलियों को अपना आहार बनाने के बाद इन घड़ियालों को धूप सेंककर सुस्ताते हुए देखा जा सकता है. ऐसा यह अपने शरीर को गर्म करने के लिए करते हैं. इनकी औसत आयु 50-60 साल मानी जाती है.


बिहार की गंडक नदी अब भारत में इनका तीसरा प्राकृतिक आवास बन चुका है


बिहार में गंडक नदी में घड़ियाल मिलने की कहानी भी दिलचस्प है. वर्ष 2003 में बिहार में ही एक अन्य लुप्तप्राय जीव सोंस या गंगा डॉल्फिन का सर्वेक्षण चल रहा था. उस समय गंडक में कोई जीवित घड़ियाल तो नहीं दिखा, लेकिन एक शिशु घड़ियाल की लाश मिली, जिसकी पूंछ कटी हुई थी. इस घटना के बाद से भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट (वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया) के समीर कुमार सिन्हा की दिलचस्पी गंडक में घड़ियाल के प्रति बढ़ती गई. गंडक किनारे स्थित वाल्मीकि टाइगर रिजर्व में काम करते हुए एक बार उन्होंने गंडक के नेपाल वाले हिस्से में त्रिवेणीघाट पर सात-आठ घड़ियाल देखे. इससे करीब 7-8 साल पहले प्रसिद्ध घड़ियाल विशेषज्ञ स्वर्गीय ध्रुवज्योति बसु ने भी गंडक के नेपाल वाले हिस्से में घड़ियाल के होने की बात श्री सिन्हा को बताई थी. और बाद में स्वयं श्री सिन्हा द्वारा इस बात की तसदीक किए जाने के बाद कई संगठनों ने एक साथ मिलकर 2010 में गंडक में एक साथ कई प्रजातियों के सर्वेक्षण का कार्य शुरू किया. और इसी सर्वेक्षण में गंडक में बचे-खुचे घड़ियालों का पता चला.


इस सर्वेक्षण के बाद 2012 में बिहार सरकार का ध्यान इस ओर गया और स्वयं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घड़ियालों में व्यक्तिगत दिलचस्पी लेते हुए उनके पुनर्वास के लिए वाइल्डलाइफ ट्रस्ट से तकनीकी मदद मांगी. बिहार सरकार का वन विभाग भी इस परियोजना में अपना तन-मन-धन देकर जुट गया. आज श्री सिन्हा वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया में घड़ियाल संरक्षण परियोजना के प्रमुख हैं और बिहार में घड़ियालों की संख्या बढ़ाने के प्रयासों के प्रति समर्पित रहे हैं. एक अन्य प्रसिद्ध घड़ियाल विशेषज्ञ प्रोफेसर बीसी चौधरी इस परियोजना के मार्गदर्शक रहे हैं. इन प्रयासों से मार्च 2015 के सर्वेक्षण में गंडक में 54 घड़ियाल पाए गए, जिनमें 26 घड़ियाल वयस्क थे.


गंडक नदी में एक घड़ियाल


आखिर ऐसा क्या है एक विलुप्तप्राय जीव - घड़ियाल गंडक में सुरक्षित है. बात यह है कि जैसे ही यह नदी नेपाल से भारत में प्रवेश करती है, तो इसे वाल्मीकि टाइगर रिजर्व का संरक्षण मिल जाता है, जो इसके बायें किनारे पर 45 किमी तक बसा हुआ है. फिर इसके दायीं तरफ भी उत्तर प्रदेश का सोहागी बरवा अभयारण्य बसा हुआ है, जिससे करीब 7-8 किमी तक इसे संरक्षण मिल जाता है. इस नदी के तटवर्ती इलाकों में खेती भी बहुत कम हो पाती है, क्योंकि जब-तब यह नदी कटाव करती रहती है. इस नदी के किनारे बहुत ही कम संख्या में गांव बसे हैं और शहर तो एक भी नहीं बसा. दूसरी बात यह कि गंडक बहुत सारी छोटी-छोटी धाराओं के साथ एक नेटवर्क का निर्माण करती है, जिससे बीच के हिस्सों में कई ऐसे निर्जन और टापूनुमा स्थल निर्मित हो जाते हैं जहां ये घड़ियाल बिना किसी डर के विचरण और प्रजनन कर सकते हैं. इस नदी पर मछली मारे जाने का दबाव भी बहुत कम है, जिससे घड़ियालों को कोई विशेष मानवीय दखलंदाजी का सामना नहीं करना पड़ता.


हालांकि 1960 के दशक में वाल्मीकिनगर में नदी पर बराज बना दिए जाने की वजह से नदी की निचली धारा में घड़ियालों के अनुकूल रहा अब तक का प्राकृतिक आवास लगभग नष्ट हो गया था. इसके बाद से इस इलाके में कानून-व्यवस्था की स्थिति अच्छी न होने की वजह से वन्य-जीव संरक्षकों ने भी ऐसे क्षेत्रों में जाने से परहेज ही किया. लेकिन धीरे-धीरे इस क्षेत्र की भू-आकारीय परिस्थितियां फिर से घड़ियालों के अनुकूल होती गई हैं. पिछले कुछ वर्षों में कानून-व्यवस्था की स्थिति अच्छी हो जाने से संरक्षणवादी भी बिना किसी भय के लंबे-लंबे समय तक सुनसान जगहों में शिविर लगाकर कार्य करने लगे हैं.


2010 में गंडक में जंगली घड़ियालों की आबादी सुनिश्चित हो जाने के बाद यह आत्मविश्वास पैदा हुआ कि पटना के संजय गांधी जैविक उद्यान जैसे स्थलों में रखे गए घड़ियालों को प्राकृतिक प्रजनन के लिए इस नदी में छोड़ा जाए. शिशु घड़ियालों के बजाय किशोर या युवा घड़ियालों के नदियों के वातावरण में जीवित रह पाने की संभावना ज्यादा होती है. प्रायः बिना किसी विशेष परेशानी के नए माहौल में स्वयं को ढ़ाल लेने की गुंजाइश इनमें ज्यादा होती है. इसलिए सुनियोजित तरीकों से गंडक में ऐसे सुरक्षित स्थलों को चिह्नित किया गया, जहां इन्हें बिना किसी बाहरी खतरे के छोड़ा जा सकता हो. पहचान के लिए एक निश्चित निशान देकर और उच्च फ्रीक्वेंसी के रेडियो उपकरणों या सैटेलाइट ट्रांसमिशन जैसे निगरानी उपकरणों से जोड़कर इन्हें नदी में छोड़ा गया.


जैविक उद्यानों से लाकर कुछ घड़ियालों को गंडक में छोड़ा गया है


देखा गया कि जैविक उद्यान जैसे छोटे तलैये में रहने के अभ्यस्त घड़ियाल हम साधारण मनुष्यों की तरह ही पहले तो नदी की मुख्यधारा में गहरे उतरने से ही घबराते हैं. शुरू-शुरू में तो वे अपने पुरानी मित्र-मंडली में ही रहना पसंद करते हैं. लेकिन धीरे-धीरे वे एक-दूसरे से अलग होकर अपने अनुकूल आवास तलाशने लगते हैं. यह भी देखा गया है कि छोड़े गए घड़ियाल कभी-कभी 1000 किलोमीटर से भी ज्यादा चलने के बाद और करीब 7-8 महीने बाद नदी में उतरते हैं. इस साल 5 जून को संरक्षणवादियों के बीच तब खुशी की लहर दौड़ गई, जब गंडक में छोड़े गए घड़ियालों द्वारा प्राकृतिक वातावरण में दिए गए अंडों से कई स्वस्थ शिशु घड़ियालों के निकलने की पुष्टि हो गई. विश्व पर्यावरण दिवस घड़ियालों के लिए और घड़ियाल प्रेमियों के लिए भी एक नया उपहार लेकर आया था. बिहार में गंडक का यह इलाका जंगली घड़ि़यालों के प्राकृतिक प्रजनन-स्थल के तौर पर अब देश का तीसरा स्थान बन गया है. इसके अलावा देश में चंबल और गिरवा नदी भी जंगली घड़ियालों के प्राकृतिक प्रजनन-स्थल हैं.


ऐसा नहीं है कि आज भी इन घड़ियालों के सामने चुनौतियां नहीं हैं. बिहार में जब से नदियों को अंतर्देशीय जलमार्ग के रूप में विकसित किए जाने की खबर आई है, तबसे घड़ियालों के प्रति भी स्वाभाविक रूप से चिंताएं बढ़ी हैं. नदी का पानी नहरों में किस हद तक छोड़ा जाए, ताकि घड़ियाल और सोंस डॉल्फिन जैसे जीवों के लिए जरूरी मात्रा में जलस्तर बरकरार रहे, यह भी एक प्रश्न बना रहता है. बालू का उत्खनन अभी तक गंडक के लिए कोई समस्या नहीं बना है, लेकिन आनेवाले वर्षों में इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता. फिलहाल तो संरक्षित प्रजनन क्षेत्रों के प्रबंधन में स्थानीय ग्रामीणों को जोड़कर इन जलजीवों के साथ उनके संबंधों को आत्मीय और प्रगाढ़ बनाने पर बल दिया जा रहा है.


घड़ियाल इंसानों के लिए खतरा नहीं होते


कई लोग घड़ियाल को भी मगरमच्छ की तरह खतरनाक समझ लेते हैं. यह एक बहुत बड़ी गलतफहमी है. मगरमच्छ द्वारा लोगों पर जानलेवा हमला किए जाने की खबरें पूरी दुनिया से आती ही रहती हैं. इसलिए अज्ञानतावश लोग घड़ियाल को भी जानलेवा हमला करनेवाला आदमखोर मगरमच्छ समझ लेते हैं. इसका कारण है कि एक तो ये देखने में मगरमच्छ की तरह होते हैं और दूसरे, इनका आकार भी बहुत बड़ा होता है. गंडक और अन्य घड़ियाल वाली नदियों के किनारे रहनेवाले लोग खूब अच्छी तरह जानते हैं कि घड़ियाल मनुष्यों को कुछ भी नुकसान नहीं पहुंचाते, फिर भी इनका भीमकाय आकार लोगों को डराने के लिए काफी होता है.


पौराणिक कथाओं में घड़ियाल को कभी मां गंगा की सवारी तो कभी जलदेवता वरुण की सवारी होना बताया जाता है. माना जाता है कि गीता के दसवें अध्याय में कृष्ण ने अपना वर्णन करते हुए जलचरों में स्वयं को घड़ियाल कहा है. लेकिन मुहावरों में ‘घड़ियाली आंसू’ फिर भी एक नकारात्मक अर्थ में ही प्रयोग होता है. घड़ियाली आंसू का यह मुहावरा चाहे जैसे भी बना हो, लेकिन घड़ियालों के पूरी तरह लुप्त हो जाने के बाद कहीं हम्हीं इनके प्रति सच्चे आंसू बहाते न नजर आएं. हालांकि गंडक में हुआ यह सफल प्रयास दिखाता है कि मानवीय संवेदनशीलता, संरक्षणवादी उत्साह और उदारतापूर्ण प्रशासनिक सहयोग से किए गए ऐसे प्रयास कभी विफल नहीं जाते. पिछले कुछ वर्षों में पन्ना टाइगर रिजर्व में बड़ी संख्या में बाघों की वापसी ऐसी ही एक अन्य मिसाल रही है.


(पीयूष सेखसरिया के सहयोग के साथ)


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